8 September 2015

हमे कर्मों का नही बल्कि भावों का फल मिलता हैं।


मित्रों आज तक हम सुनते आये है कि हमें कर्मो का फल मिलता हैं। 

     पर गलत हमें कर्मो का नहीं बल्कि भावों का फल मिलता हैं। कर्म तो मात्र एक साधन है फल तक पंहुचने का।
आइये एक कहानी द्वारा आपको कर्मो के फलों को बदलने का राज बताता हूँ।

     मित्रों एक समय की बात है एक सन्यासी अपनी कुटिया के बाहर बैठकर रोज परमात्मा का ध्यान लगाता था। उसकी कुटिया के सामने एक वेश्या का भी घर था।

     सन्यासी रोज वेश्या के कर्मो को देखकर दिनभर मन ही मन यह विचार करता की देखो ये कितना नीच कर्म कर रही है और ईश्वर द्वारा मिली इस देह को पाप कर्म में लिप्त कर अपना नरक बना रही हैं।

     वही दूसरी और वो वेश्या सन्यासी को रोज भगवान् का ध्यान लगाते देख यह चिंतन करती थी की देखो साधू महात्मा कितने पुण्यशाली हैं जो हमेशा भगवान् के ध्यान में लीन रहते हैं।

     पूरे जीवन काल तक दोनों का चिंतन एक दूसरे के प्रति ऐसा ही बना रहा। मरणोपरांत जब दोनों ऊपर जाते है तब भगवान् अपने दूतों से वेश्या को स्वर्ग भेजने का और साधू को नरक में डालने का फैसला सुनाते हैं।

     भगवान् का फैसला सुनकर साधू, भगवान् से कहता है कि प्रभु इस वेश्या ने जीवन भर अपनी देह को पाप कर्मो में लगाए रखा और मैंने जीवन भर इस देह को आपके ध्यान में लगाके रखा, फिर इसे स्वर्ग और मुझे नरक क्यों ?

     भगवान् ने कहा साधू महात्मा आपका कथन बिल्कुल सत्य है। आपने जीवन भर अपनी देह को जप और ध्यान में लगाये रखा। परन्तु तन से भले ही आप मेरा नाम जप रहे थे, पर आपका मन और मानसिक ध्यान तो हमेशा वेश्या के पाप कर्मो के चिंतन में लगा रहता था। वहीँ दूसरी और ये वेश्या रोज आपको देखकर एक हीं चिंतन करती थी कि साधू महात्मा कितने पुण्यशाली है जो हमेशा भगवान् का ध्यान लगाते है। और आप हीं को देखकर ये निरंतर मेरा ध्यान करती थी।

     महात्मा जी कर्म भले ही अच्छे हो, पर अगर आपका "ध्यान" संसार की बुराइयों में है, आपके मन के भाव बुरे है, तब तक मुक्ति संभव नही।

     महात्मा जी मंदिर में आकर लोग मुझे कितने हीं हाथ जोड़ले, दंडवत करले, प्रसाद चढ़ाले या और भी मुझे रिझाने के कोई कर्म करले, पर में वो कुछ नही देखता, में तो इतना कुछ करने के बाद भी उनके कर्म के पीछे छुपे मन के भावों को हीं देखता हूँ और उन्ही भावों के अनुसार उसके कर्म करते हीं फल देता हूँ।

     महात्मा जी लोग भले हीं रोज मंदिर जाते हो, परन्तु ये जरुरी नही की वे सुखी हो पायेंगे। क्योकि इस कलयुग में अधिकतर लोग अपने स्वार्थ सिद्धि हेतु मन में बुरे भाव रखकर मुझे रिझाने का प्रयास करते हैं। हाथ मुझे जोड़ते है और मन से किसी और को कोसते हैं। पर में तो कर्म के सिद्धांतो की मर्यादा से बंधा हूँ.... इसलिये जैसे ही किसी ने हाथ पैर जोड़ने का कर्म किया, बस फिर में उसके मन के भावों के अनुरूप उसे फल देने को मजबूर हूँ।
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      मित्रों इस कहानी से तात्पर्य ये हैं कि भगवान हमें कर्मो का नही बल्कि भावों का फल देते हैं। कर्म तो मात्र फल तक पंहुचने का एक साधन हैं।

     जैसे सीता हरण और रुकमनी हरण दोनों कर्म एक जैसे थे, परन्तु भाव अलग-अलग होने के कारण दोनों के फल भी भिन्न-भिन्न थे।

     जैसे कोई व्यक्ति किसी पर लाठी चार्ज करे तो उसको जेल में डाल दिया जाता हैं। पर इसकी जगह अगर पुलिस वाले लाठी चार्ज करे तो उन्हें कोई जेल में नही डालता बल्कि प्रमोशन दिया जाता हैं। आखिर दोनों के कर्म एक से होते हुए भी फल भिन्न-भिन्न क्यों ? वो इसलिये की उस व्यक्ति का भाव हिंसा फैलाने का था और पुलिस का भाव हिंसा मिटाने का था।

     तो मित्रों देखा दो लोगों ने एक ही तरह के कर्म किये फिर भी उनके फल भिन्न-भिन्न मिले। फिर आप कैसे कह सकते है कि हमें कर्मो का फल मिलता हैं। कर्म तो मात्र एक साधन है, फल तक पहुँचने का। बाकि फल का निर्धारण तो आपके भाव के साथ ही हो जाता हैं।

     इसलिए मित्रों में इस बात का खंडन करता हूँ कि हमें कर्मो का फल मिलता हैं।हमें कर्मो का नही बल्कि भावों का फल मिलता हैं।

     मित्रों इस कर्म के सिद्धांत को अगर आप समझ गए हैं तो आज से ही अपने हर कर्म को अच्छे भावों से जोड़ दीजिये। ऐसा करने से निश्चित हीं आपको कम समय में और न्यून परिश्रम में ही अच्छे परिणामों की प्राप्ति होने लगेगी।


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4 September 2015

आप वो भी पा सकते है जो आपके भाग्य में नही हैं


     भले हीं आपके भाग्य में कुछ नहीं लिखा हो पर अगर "गुरु की कृपा" आप पर हो जाए तो आप वो भी पा सकते है जो आपके भाग्य में नही हैं।

     आइये मित्रों जो किस्मत में नही लिखा है वो कैसे पाया जा सकता हैं, इसका लोजिक बताता हूँ।
मित्रों एक सत्य घटना हैं।

      काशी नगर के एक धनी सेठ थे, जिनके कोई संतान नही थी। बड़े-बड़े विद्वान् ज्योतिषो से सलाह-मशवरा करने के बाद भी उन्हें कोई लाभ नही मिला। सभी उपायों से निराश होने के बाद सेठजी को किसी ने सलाह दी की आप गोस्वामी जी के पास जाइये वे रोज़ रामायण पढ़ते है तब भगवान "राम" स्वयं कथा सुनने आते हैं। इसलिये उनसे कहना कि भगवान् से पूछे की आपके संतान कब होगी।

     सेठजी गोस्वामी जी के पास जाते है और अपनी समस्या के बारे में भगवान् से बात करने को कहते हैं। कथा समाप्त होने के बाद गोस्वामी जी भगवान से पूछते है, की प्रभु वो सेठजी आये थे, जो अपनी संतान के बारे में पूछ रहे थे। तब भगवान् ने कहा कि गोवास्वामी जी उन्होंने पिछले जन्मों में अपनी संतान को बहुत दुःख दिए हैं इस कारण उनके तो सात जन्मो तक संतान नही लिखी हुई हैं।

     दूसरे दिन गोस्वामी जी, सेठ जी को सारी बात बता देते हैं। सेठ जी मायूस होकर ईश्वर की मर्जी मानकर चले जाते है।

     थोड़े दिनों बाद सेठजी के घर एक संत आते है। और वो भिक्षा मांगते हुए कहते है की भिक्षा दो फिर जो मांगोगे वो मिलेगा। तब सेठजी की पत्नी संत से बोलती हैं कि गुरूजी मेरे संतान नही हैं। तो संत बोले तू एक रोटी देगी तो तेरे एक संतान जरुर होगी। व्यापारी की पत्नी उसे दो रोटी दे देती है। उससे प्रसन्न होकर संत ये कहकर चला जाता है कि जाओ तुम्हारे दो संतान होगी।

     एक वर्ष बाद सेठजी के दो जुड़वाँ संताने हो जाती है। कुछ समय बाद गोस्वामी जी का उधर से निकलना होता हैं। व्यापारी के दोनों बच्चे घर के बाहर खेल रहे होते है। उन्हें देखकर वे व्यापारी से पूछते है की ये बच्चे किसके है। व्यापारी बोलता है गोस्वामी जी ये बच्चे मेरे ही है। आपने तो झूठ बोल दिया की भगवान् ने कहा की मेरे संतान नही होगी, पर ये देखो गोस्वामी जी मेरे दो जुड़वा संताने हुई हैं। गोस्वामी जी ये सुन कर आश्चर्यचकित हो जाते है। फिर व्यापारी उन्हें उस संत के वचन के बारे में बताता हैं। उसकी बात सुनकर गोस्वामी जी चले जाते है।

      शाम को गोस्वामीजी कुछ चितिंत मुद्रा में रामायण पढते हैं, तो भगवान् उनसे पूछते है कि गोस्वामी जी आज क्या बात है? चिन्तित मुद्रा में क्यों हो? तो गोस्वामी जी कहते है की प्रभु आपने मुझे उस व्यापारी के सामने झूठा पटक दिया। आपने तो कहा ना की व्यापारी के सात जन्म तक कोई संतान नही लिखी है फिर उसके दो संताने कैसे हो गई।

      तब भगवान् बोले कि उसके पूर्व जन्म के बुरे कर्मो के कारण में उसे सात जन्म तक संतान नही दे सकता क्योकि में नियमो की मर्यादा में बंधा हूँ। पर अगर.. मेरे किसी भक्त ने उन्हें कह दिया की तुम्हारे संतान होगी, तो उस समय में भी कुछ नही कर सकता गोस्वामी जी। क्योकि में भी मेरे भक्तों की मर्यादा से बंधा हूँ। मै मेरे भक्तो के वचनों को काट नही सकता मुझे मेरे भक्तों की बात रखनी पड़ती हैं। इसलिए गोस्वामी जी अगर आप भी उसे कह देते की जा तेरे संतान हो जायेगी तो मुझे आप जैसे भक्तों के वचनों की रक्षा के लिए भी अपनी मर्यादा को तोड़ कर वो सब कुछ देना पड़ता हैं जो उसके नही लिखा हैं।
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      मित्रों कहानी से तात्पर्य यही हैं कि भले हीं विधाता ने आपके भाग्य में कुछ ना लिखा हो, पर अगर किसी गुरु की आप पर कृपा हो जाये तो आपको वो भी मिल सकता है जो आपके किस्मत में नही।

इसलिए कहते है मित्रों कि...
भाग लिखी मिटे नही, लिखे विधाता लेख
मिल जावे गुरु मेहर तो, लगे लेख पे मेख ।।

     भाग्य में लिखा विधाता का लेख मिट नही सकता। पर किसी पर गुरु की मेहरबानी हो जाए तो विधाता का लेख भी दिवार की मेख पर लटका रह जाता हैं।



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